घर का दरवाज़ा खुला था
पर तुम आये नहीं
खटखटाया खिड़की हवा की ज़ोर से
हज़ारों बार
मैं सौ मिन्नतें करती रही
तुम्हारी एक आवाज़ का दस्तक पर
काफी इंतज़ार के बाद
जब मैं मन्न का दरवज्जा बंद की
कोई आया घर के बाहर
शकल न दिखी पर
वो काली टोपी और लाल गुलाब
भूले हुए पलों का याद दिलाया
खोली नहीं दरवज्जा
छोड़कर मेरी लज्जा
खिड़की के सलाखों की
बीच से देखा तो ऐसा लगा
वो ठहरे सलाखों के पीछे
मेरे इंतज़ार में
और मै आज आज़ाद हुयी
प्यार के पिंजरे से नील गगन में !